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धम्म ठितो अज्जवमद्दवे रतो।
संगातिगो सच्चदुक्खप्पहीनो
न लिप्पवते दिद्विसुतेसु धीरो॥
अञ्चीयथा वातवेगेन खित्तो
अत्वं पलेति न उपेति संखं
एवं मुनी नामकायाविमुत्तो
अत्यं पलेति न उपेति संखं ॥
जो संसार में सुरक्षित, इंद्रियों को वासना से विमुक्त होकर धर्म में स्थित, अर्जव और मदिव में निरत हो संग त्यागकर विचरता है, वह सब दुःखों से विनिर्मुक्त होकर दृष्टि और श्रुत के विषयों में लिप्त नहीं होता। जिस प्रकार दीपशिखा वात से धुझकर अपने कारण से लय हो जाती है और फिर संख्या वा भेद को नहीं प्राप्त होती, उसी प्रकार मुनि नाम और काय वा रूप से मुक्त होकर अपने कारण सर्वात्म ब्रह्म में लय हो जाता है और संख्या को नहीं प्राप्त होता।
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