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जिसने सब वेदों और कैवल्य वा मोक्ष्य-विधायक उपनिषदों का अवगाहन कर लिया है और जो सब वेदनाओं से वीतराग हो कर सब को अनित्य जानता है, वही वेदज्ञ है।
महात्मा बुद्धदेव जगत् को अकर्तक और जीवात्मा को निर्वाण होने पर नाशमान मानते थे। एक जगह उन्होंने सृष्टि के विषय में कहा है-
नहि अत्य देवो ब्रह्मा वा संसारस्सथि कारणं ।
सुद्ध धम्मा पवत्तन्ते हतु सम्भारपञ्चया।
इस संसार की उत्पत्ति का कोई देवता वा ब्रह्मा कारण नहीं है। संसार में सब कुछ कारण और कार्य के नियम से उत्पन्न होता है।
जीव वा प्रत्येक चेतनता के विषय में उन्होंने कहा है -
यस्समग्गं न जानासि आगतस्स गंतस्स वा।
उभी अंते असम्पस्सं तिरत्थं परिदेवसी ।
जिसके आने और जाने के मार्ग को तुम नहीं जानते हो और जिसके दोनों अंत अदृश्य हैं; उसके लिये क्यों दुःख उठाते हो। गीता में भगवान कृष्णचंद्र ने भी यही कहा है-
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्त निधनान्येव तत्र का परिवेदना ।।
संन्यासियों के लिये भगवान् बुद्धदेव का प्रधान उपदेश यह था कि ये संग वा कामना का त्याग करें। वे कहते हैं-
सोत्सगुत्तोऽविदितिन्द्रिया.चरे. :