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( २४१ ) डाला और एक निर्धारित नियम से चलने के लिये वाध्य किया। यद्यपि स्वयं भगवान् बुद्धदेव उस संघ के एक साधारण भिक्षु थे, तथापि संघ ने उन्हें आजीवन अपना प्रधान नेता और सर्वख बना रखा था। इतना ही नहीं, उन्होंने उन्हें उनके पीछे धर्म और संघ के साथ मिलाकर रत्नत्रय' में एक रन बना दिया और आज तक सारे संसार के बौद्ध 'बुद्ध, धर्म और संघ' की शरण को प्राप्त होना ही अपना परम कर्तव्य समझते हैं। इस संघ ने भिक्षाओं के लिये क्या क्या कर्तव्य धर्म ठहराया था, इसका वर्णन विनय-पिटक में सविस्तर है । उन कृत्यों में बुद्ध, धर्म और संघ का तीन वार आश्रय लेना, दसशील, * और चीवर, पिंड, शयनासन और भैपज्य का प्रयवेक्षण मुख्य कृत्य है जो नाग वा प्रव्रज्या ग्रहण करनेवाले पुरुष को उपसंपदा ग्रहण के पूर्व करना पड़ता है। संपदा ग्रहण करने पर भिक्षओं के लिये प्रति पंद्रहवें दिन पूर्णिमा और अमावस्या का उपवसथ और पाप- देशना करना आवश्यक है। उपवसथ के लिये धार्मिक सूत्र में लिखा है-

  • महायस्तु के भव से प्रतिपात, पदप्तदान, फामेषुमिय्यापार मुरारे-

समक्षपान, कृपावाद, पिसुनवाय, भिन्नमलाप, शपिदा, व्यापाद और निस्वादूष्टि से नित्ति ये दस पोल पर विनयपिटक में हिंधा, स्पेन, स्वमिषार, मिस्वाभापत, प्रमाद, अपराह भोजन, स्व-गीतादि, माता- गंपादि, चासन पवा प्रोद्रव्य संग्रह के स्वाग को दस मील माना।