यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( २४० ) ही एक ऐसी वस्तु है जो उस समाज के प्रत्येक व्यक्ति को किसी सूत्र में बाँध सकती है । गृहस्थाश्रम में समाज-बंधन को ऋपियों ने सहस्रों वर्ष से बढ़ कर रखा और अच्छी तरह से चारों ओर से जकड़बंद कर दिया था । जब लोग उच्छखल होकर अनेक विकार उत्पन्न कर बैठते हैं तब संन्यासाश्रम के लोगों को जो सर्वथा परि- प्रह रहित और स्वतंत्र हैं, एक सूत्र में वाँधने के लिये कौन ऐसी शक्ति है जो वाध्य कर सकती है ? इसमें कोई सन्देह नहीं कि महात्मा बुद्धदेव के पूर्व के महर्पियों और प्राचार्यों ने संन्यास धर्म के कृत्रों और कर्मों का निर्वाचन उपनिपदादि ग्रंथों में कर दिया था, पर साथ ही उन्हें सर्वथा अदंड्य और राजपरिपद् की आज्ञा से विनिमुक्त कहकर किसी ऐसी शक्ति का निर्वाचन नहीं किया था जो उनको बलात् उस नियम पर चलने के लिये बाध्य करती। महात्मा बुद्धदेव ने प्राचीन महर्पियों की आज्ञा में इस त्रुटि का अच्छी तरह अनुभवपूर्वक साक्षात् किया था । वे स्वयं राजकुमारथे । उन्हें. शासनपद्धति और परिषद् संघटन आदि का अच्छा परिचय था। संन्यासियों की अवस्था के सुधार और संन्यासाश्रम के नियम ठीक रीति से चलाने के लिये उन्होंने संघ का संघटन किया। इस सघ में सारी क्रिया परिपद की रीति पर होती थी। संघ के लिये विनय के नियम निर्धारण करना और प्रायश्चित्त विधान आदि करना.इसका मुख्य काम था । इस संघ ने सारे बौद्ध भिक्षओं को एक दृढ़ सूत्र में बाँध दिया और जिस प्रकार गृहस्थों पर समाज का दबाव था, उसी प्रकार उन्होंने संन्यासियों को भी संघ के दबाव में