(ख ).श्रमण धर्म - महात्मा बुद्धदेव का मुख्य लक्ष संन्यासाश्रम की अवस्था का सुधार करना था। संन्यास-ग्रहण की प्रथा इस देश में उपनिषद्- काल से चली आती थी और लोग यथारुचि वैराग्य प्राप्त होने परं ब्रह्मचर्या, गृहस्थाश्रम वा वानप्रस्थाश्रम से संन्यास में प्रविष्ट हुआ करते थे। यद्यपि शास्त्रों में केवल अधिकारी पुरुष ही को संन्या- साश्रम के ग्रहण का अधिकार दिया गया है, पर फिर भी कितने आलसी और काम-चोर लोग संन्यासाश्रम में प्रवेश करने लग गए थे जिसका परिणाम यह हुआ था कि उन लोगों के दुराचारों से संन्यास आश्रम ही कलंकित हो गया था। इन अनधिकारियों को संन्यास धर्म में प्रवेश करने से स्वयं भगवान बुद्धदेव भी न रोक सके थे और देवदत्त आदि कितने ही अनधिकारी पुरुष कापाय वस्त्र धारण कर भिक्षु बन गए थे जिसके कारण स्वयं भगवान बुद्ध- देव को भी अपने जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। . . . • किसी आश्रम के आचार का पालन तवं तक ठीक रूप से नहीं हो सकता जब तक उसके प्रत्येक व्यक्ति पर उस आश्रम के समुदाय का जिसे समाज कहते हैं, पूरा दवावन हो । संसार का कोई व्यक्ति यदि वह विलकुल स्वतंत्र हो, केवल ईश्वर वा परलोक वा स्वर्ग नरक के भय से धर्म का अनुष्ठान नहीं कर सकता जब तक उस पर समाज वा पंच का दवाव वा भय न हो । समाज का दंड-विधान
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