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( २३८) मेधाविनं व बहुस्सुतं च आलाय अत्यं पटिपज्जमानो विश्वातधम्मो सो सुखलभेय ।। मूों का साथ न करना और पंडिनों का संग करना तथा पूजनीय पुरुषों की पूजा प्रतिष्ठा करना यह उत्तम और मंगल- फारक कर्म है। इसलिये ऐसे सत्पुरुषों का जो मेधावी और बहु- श्रुत हों, संग करो, क्योंकि प्रर्थ को न जानकर जो उनकी शरण का प्राप्त होता है वह विज्ञात-धर्म होने पर सुख प्राप्त करता है। अतिथि-पूजन पर उनका कथन था कि न केवल वही पुरुष नीच और पापी है जो आए हुए अतिथि का पूजन नहीं करता, किंतु ऐसे लोग भी निंद्य हैं जो किसी के घर जाकर उनका प्रातिथ्य- सत्कार स्वीकार नहीं करते ! वे कहते हैं- यो वै परकुले गया मुत्वा न सुचिभोजनं । आगतं न पटिपूजेत तं जसो वसलोइति । जो पराए घर पर जाकर पवित्र भोजन नहीं करता और आए हुए अतिथि का सेवा-सत्कार नहीं करता, वह पल है। इन उपयुक्त थोड़े से वाक्यों से या स्पष्ट है कि महात्मा बुद्धदेव ने गृहस्थों के लिये किसी नए धर्म का उपदेश नहीं किया, किंतु उसी प्राचीन आय॑ धर्म का उपदेश किया था जिसका उपदेश उनके पूर्व महर्षिगणों ने श्रुतिस्मृति में किया था। वे एकधर्म-संशोधकथे और प्रचलित प्रथामें जो कृत्य उन्हें समाज के लिये हानिकारक प्रतीत हुए, उनका उन्होंने स्पष्ट शब्दों में निर्भयता से प्रतिवाद किया ।