( २३७ ) किया है कि किसी अवस्था में भी असत्य न बोलना चाहिए । वे कहते हैं- सभंगतो वा परिसग्गतो वा एकस्स चको न मुसा भरणेय्य। नभाणये भणनं नानुजना। सव्वं अभूतं परिवज्जयेय्य ॥ सभा में जाकर, चाहे परिषद् में जाकर अथवा परस्पर मिथ्या न बोलना चाहिए, न बोलने देना चाहिए और न बोलने की आज्ञा देनी चाहिए । सब असत्य वाक्यों को बोलने के पहले ही परिवर्ज करना चाहिए। . भगवान् बुद्धदेव ने ऐसे लोगों का सबसे अधिक तिरस्कार किया है जिन्हें महाराज मनु ने धर्म-ध्वजी कहा है । वे वसल-सुत्त में कहते हैं- . यो च अनरहा संतो अरहं पटिजानती। चोरोस ब्रह्मकेलोके एस खो वसलाधमो॥ जो अनह; अयोग्य होकर अपने को योग्य समझता है, वह 'ब्रह्मलोक में चोर है और ऐसे पुरुष को वृषलाधम कहते हैं। . .. - गृहस्थों के लिये उनका सबसे उत्तम उपदेश दुष्टों के संग की परित्याग करना है । वे कहते हैं- असेवनं च वालानं पंडितानं च सेवनं । पूजा च पूजनीयानं एतं मंगलमुत्तमं ॥ . तस्मा हवे सप्पुरिसं भजेथ
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