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परलोक प्राप्त होने पर आपका उत्तराधिकारी हो ।" राजा ने "एवमस्तु" कह दूसरे दिन राजसभा में जयंत को बुला मंत्रियों से अपनी इस प्रतिज्ञा की घोषणा की और अपने पाँचों राजकुमारों को वनवास की आज्ञा दी। राजा की यह घोषण सुन राजकुमारों ने अपनी पाँचों वहिनों को अपने साथ ले बन जाने की तैयारी की और तत्क्षण उन्होंने उत्तराभिमुख बन को प्रस्थान किया । वहाँ से चलकर वे लोग काशीकौशल देश में पहुंचे और वहाँ कुछ दिन तक रहे । पर काशीकौशल के राजा ने जब देखा कि उनके सुव्यवहार से प्रजा उन लोगों को बहुत प्यार करती है, वो उसे भय हुआ कि ऐसा न हो कि एक दिन सारी प्रजा इनके अनुकूल हो जाय और इन्हें मेरे स्थान पर राजसिंहासन पर बैठा दे। इसी लिये उसने ईर्ष्यावश अपने राज्य से उन्हें निकाल दिया । वहाँ से निकलकर उन लोगों ने हिमालय के शाकोट वन की राह ली और वे महर्षि कपिल जी के आश्रम में पहुँचे । महर्षि कपिल ने उन प्रवासित राजकुमरों का स्वागत किया और उन्हें अपने आश्रम में आश्रय प्रदान किया। महर्षि कपिल के आदेशानुसार उन लोगों ने उस घने जंगल को काटकर वहाँ एक नगर बसाया और उस नगर का नाम कपिलवस्तु रक्खा और वे वहाँ क्षत्रिय जाति के अभाव में क्षत्रिय कन्या को न पा अप नीबहिनों के साथ विवाह कर रहने लगे। थोड़ी ही शताब्दियों में उस सारे देश में उनके वंशधर फैल गए। कहते हैं, वहाँ ये लोग शाक्य नाम से प्रख्यात हुए। शाक्य नाम पड़ने का हेतुं यह बतलाया जाता है कि जव ओध्यापुरी के राजा महाराज सुजात को