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( २३० ) है, उपासक-धर्म और श्रमण-धर्म । इसी को संस्कृत भाषा में प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग तथावैदिक भाषा में पितृयान और देवयान कहते हैं। (क ) उपासक धर्म उपासकों और साधारण गृहस्थों के लिये भगवान् बुद्धदेव का यही उपदेश था कि मनुष्य एक जाति है। उसमें वर्णभेद प्राकृतिक नहीं है किंतु व्यावहारिक है । वर्णभेद को लेकर लोग दूसरे मनुष्यों, को जो नीच समझते हैं, यह उनकी मूर्खता है । पुरुष अपने कर्म, से श्रेष्ठ और अधम होता है । किसी वर्ण में उत्पन्न होने मान से कोई पुरुष श्रेष्ठ वा अधम नहीं हो सकता। भगवान बुद्धदेव का मुख्य उपदेश यही था कि व्यावहारिक वर्णभेद का मुख्य हेतु कर्म- भेद है। वासेट्ठसुत्त में उन्होंने स्पष्ट कहा है- . न केसेहि न सीसेन न करणेहि न अक्खिहि । . न मुखेहि न नासाय न प्रोटेहि भमूहि वा ।। लिंग जातिमयं नेव तथा अबासु जातिसु ।। अर्थात् मनुष्य के बाल, सिर, कान, आँख, मुँह, नाक, होंठ, -भौंह इत्यादि में कोई ऐसा अंतर नहीं जिसे हम जातिभेद का चिह्न कह सकें और जिससे यह पता चला सकें कि अमुक पुरुष अमुक. जाति का और अमुक अमुक जाति का है। योहि कोचि मनुस्सेस गोरक्खं उपजीवति त्रिपिटक के पाठ और मन भिन्न भिन्नथे । उनके भूल ग्रन्थों का लोप हो गया है।