( २२३ ) अर्थात् उनसे संभाषण न करना ।" "आनंद ने कहा-"भगवन् । यदि पालाप करना ही पड़े तो क्या करना उचित है ?" तथागत ने कहा-"स्मृत्युपस्थान" अर्थात् अत्यन्त सावधानता से बालाप करना। ऐसा न हो कि उनसे राग हो और तुम्हारेब्रह्मचर्य में बाधा पड़े।" इस प्रकार वे आनंद से बातें कर रहे थे कि सुभद्र नामक परिव्राजक भगवान् बुद्धदेव के पास कुछ प्रश्न करने के लिये पहुँचा। उस समय भगवान् बुद्धदेव अंतिम व्यथा से क्लांत हो रहे थे। आनंद ने सुभद्र को रोका और कहा-"इस ससयभगवान का चित्त अवस्थ है, तुम उन्हें अधिक कष्ट मत दो।" जय श्रानंद की बात भगवान् बुद्धदेव के कानों में पड़ी तब उन्होंने अाँख खोल दी और आनंद से कहा-"आनंद ! सुभद्र को रोको मत, उसे अपना प्रश्न करने दो।" सुभद्र भगवान बुद्धदेव के पास गया और अभिवादन करके उसने उनसे तीन प्रश्न किए । पहला यह कि-"आकाश में पद अर्थात् रूपादि है वा नहीं; दूसरे आपके शासन के अतिरिक्त अन्य कोई कल्याण मार्ग है वा नहीं तीसरे, संस्सार शाश्वत है वा नहीं ?" सुभद्र के प्रश्नों को सुनकर भगवान् बुद्धदेव ने कहा- आकासे पदे नत्थि समणो नत्थि वहिरे। पपञ्चाभिरता पजा किप्पपंचा तथागता। संखारो सस्सतो नत्थि नत्थि बुद्धानमिच्छितं । अर्थात्-हे सुभद्र ! आकाश में पद नहीं है। मेरे शासन से बाह्य कोई शांति वा कल्याण का मार्ग नहीं है। संसार की सवप्रजा प्रपंच में रत है, केवल तथागत पुरुष ही निष्प्रपंच है । सव संस्कार,
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