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(२१७ ) किंचन' अर्थात् 'कुछ नहीं की भावना करते हुए 'अकिचनायतन' में विहार करना षष्ठ सोपान है, (७) 'आकिचनायतन' को अति- क्रमण करके 'नैव संज्ञा नैवासंज्ञायतन ज्ञान और अज्ञान दोनों नहीं की भावना करते हुए 'नव संज्ञानवाज्ञ संज्ञायतन' में विहार करना वा निमग्न होना सप्तम सोपान है, (८) अन्त को 'नव- संज्ञा नैवासंज्ञायतन' को अतिक्रमण कर ज्ञान और ज्ञाता दोनों का निरोध करके 'संज्ञावेदयित' उपलब्धि करना विमोक्ष का आठवाँ और अंतिम सोपान है।" चापाल चैत्य से बुद्धदेव वैशाली के महावन-कूटागार-शाला में गए और वहाँ उन्होंने आनंद को भिक्षुसंघ को आमंत्रित करने की याज्ञा दी। भिक्षुसंघ के एकत्र हो जाने पर भगवान् बुद्धदेव ने उन्हें उपदेश देना प्रारंभ किया । वुद्धदेव ने कहा- "हे मिक्षगण ! मैंने तुम्हें जिस धर्म का उपदेश किया, उन्हें उचित है कि तुम उसे अच्छी तरह से समझो और उस पर विचार करो। उसका चारों ओर प्रचार करो। तुम्हारा कर्तव्य है कि लोक के हित और सुख के लिये संसार में ब्रह्मचर्या स्थापन करो।मैं आज तुमको उसी धर्म के सात रत्नों का उपदेश करता हूँ। इन्हें "सप्तत्रिंशच्छिक्षमाण धर्म" भी कहते हैं। तुम लोग इन्हें धारण करो । वे सातों रत्न ये हैं-(१) स्मृत्युपस्थान, (२) सम्यक्प्रहाण, (३) ऋद्धिपाद, (४) इन्द्रिय, (५) वल, (६) बोध्यंग और (७) मार्ग। (१) स्मृत्युपस्थान चार प्रकार का है-(१)शरीर अपवित्र है, (२) संसार की सब वेदनाएँ दुःखमयी हैं, (३) चित्तचंचल