( २१५ ) महात्मा लोग किसी का तिरस्कार नहीं करते.वे उनके सच्चे भाव को देखते हैं और उनका उद्देश पतितों का उद्धार और लोगों का आचरण सुधारना होता है। वे अपने आचरणों को दूसरों के पथ- दर्शन के लिये छोड़ जाते हैं। दूसरे दिन भगवान् बुद्धदेव अपने संघ समेत आम्रगली के घर गए । आम्रपाली ने भगवान् को संघ समेत बड़े आदर से भोजन कराया और श्रद्धा से उनके उपदेश सुने । जव भगवान उसके यहाँ से चलने लगे, तब पात्रपाली ने हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना की- भगवन ! मेरी इच्छा है कि मैं अपने उस आम्रवन को जिसमें भगवान अपने संघ समेत ठहरे हैं, संघ को दान करूँ।" उसका यह श्रद्धा और भक्तिपूर्ण वाक्य सुन भगवान् उसका दान स्वीकार कर अपने संघ समेत अाम्रवन में आए। नादिका में आम्रपाली के आम्रवन में कुछ दिनों रहकर भग- वान् बुद्धदेव विल्व प्राम गए । वर्षा ऋतु आ गई थी । भगवान् बुद्धदेव ने उसी गाँव में अपना अंतिम चातुर्मास्य व्यतीत किया । वहीं उनको अपने प्रिय शिष्य सारिपुत्र और मौद्गलायन के परलोक प्राप्त होने का समाचार मिला। उस समय बुद्धदेव की अवस्था अस्सी वर्ष की हो चुकी थी। उनका शरीर भी कृष और जरा-प्रस्त हो चुका था। वहाँ वर्षा ऋतु में उनके शरीर में कठिन पीड़ा हुई जिससे समस्त भिक्षुगणों में घवराहट छा गई । उस समय भगवान् बुद्धदेव ने श्रानंद को संबोधन कर के कहा-"आनंद ! भिक्षुसंघ मुझसे क्या आशा रखता है ? मैंन तुम लोगों को स्पष्ट शब्दों में
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