( २१२ ) . उद्धय, अश्रद्धा, कौसीद्य, प्रमाद, मुपितस्मृता, विक्षेप, असंप्रजन्य, कोकृत्य, भिद्ध, विर्तक और विचार नामक चतुर्विशतिधा उपक्लेशों का शमन करना उचित है। चित्त के शुद्ध होने पर उन्हें चतुर्विध स्मृत्युपस्थान की भावना करके उनमें उसे सुप्रतिष्ठित होना चाहिए। वे चतुर्विध स्मृत्युपस्थान ये हैं-(१) शरीर अपवित्र है, (२) वेद- नाएँ दुःखमयी हैं, (३) चित्त चंचल है और (४) संसार के सव पदार्थ अलीक वा क्षणिक हैं । इसके अनंतर उसे सप्तविध संवोध्यंग की भावना करनी चाहिए जिनके नामस्मृति, पुण्य, वीर्य, प्रीति, प्रसिद्धि, समाधि और उपेक्षा हैं । इस प्रकार निरंतर भावना करने से संबोधि और परम ज्ञान की प्राप्ति होती है । प्राचीन काल के ज्ञानियों ने इसी प्रणाली से संबोधि प्राप्त की है और भविष्यत् में भी वे इसी प्रणाली से सम्बुद्ध होंगे । भगवान् ने भी इसी मार्ग का अवलंबन करके संबोधि ज्ञान प्राप्त किया है । वहाँ से भगवान बुद्धदेव पाटलिपुत्र गए । उस समय उस बड़े नगर का वहाँ नाम निशान तक नहीं था, किंतु वहाँ एक छोटा गाँव था जिसे पाटलिग्राम कहते थे । इसी के पास उस समय राजगृह के महाराज अजातशत्रु के दो मंत्री सुनिध और वर्षकार एक विकट दुर्ग बनवा रहे थे । भगवान् बुद्धदेव पाटलिग्राम के एक बाग में ठहरे । वहाँ उनके उपासकगण जो उस गाँव में रहते थे, भगवान के पास उनको परिचर्या के लिये आए और उन्होंने उनकी अनेक प्रकार के भक्ष्य और भोज्य से पूजा को । भगवान् बुद्धदेव ने अव- सध्यागारमें बैठकर उन लोगों को संबोधन करके कहा-“दुःशील और
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