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करोगे तथा सदाचार की रक्षा और सद्धर्म पर दृष्टि रखोगे तब तक तुम लोगों का क्षय नहीं होगा।”

इस प्रकार उपस्थान-शाला में भिक्ष-संघ को उपदेश कर भगवान् बुद्धदेव आनंद को साथ लेकर राजगृह से अंबलस्थिका नामक स्थान में गए और वहाँ उन्होंने अनेक भिक्षओं को बुलाकर उन्हें शील, समाधि, प्रज्ञा आदि का उपदेश किया। वहाँ कुछ दिन रहकर वे नालंद गए। नालंद पहुँच कर वे प्रवरिकाम्र वन में ठहरे। वहाँ सारिपुत्र को जब उनके आने का समाचार मिला तब वह भगवान् बुद्धदेव के पास आया और अभिवादन करके बोला― “भगवन्! मेरी यह धारणा है कि आपके समान भूतकाल में आज तक कोई श्रमण वा ब्राह्मण इस संसार में उत्पन्न नहीं हुआ है; भविष्यत् में भी आपके सदृश किसी के होने की आशा नहीं है।” बुद्धदेव ने कहा―“सारिपुत्र! यह तुम्हारी अत्युक्ति है। तुम्हें मालूम नहीं है कि भूत काल के ज्ञानी लोग कैसे शील-संपन्न, धर्म-परायण और प्रज्ञावान् थे और न तुम्हें यही मालूम है कि भविष्य में कैसे कैसे ज्ञानी उत्पन्न होंगे। तुम यह भी नहीं जानते कि मैं कहाँ तक शीलसंपन्न, धर्म-परायण और प्रज्ञावान हूँ।” सारिपुत्र भगवान् की यह नम्रता देखकर विस्मित हो गया। सारिपुत्र ने कहा―“भगवन्! ज्ञानियों ने यह उपदेश किया है कि जिज्ञासु को पहले काम, हिंसा, . आलस्य, विचिकित्सा और मोह को जो पंच-विध प्रतिबंधक कह- . लाते हैं, दूर करना चाहिए। फिर क्रोध, उपनाह, प्रक्ष, प्रहाश, ईर्ष्या, मात्सर्य्य, शाठय, माया, मद, विहिंसा, अही, अनपात्रपा, स्त्यानव,