( २१०) कहा-"भिक्षुगण ! तुम्हें सात अपरिहातव्य धा का उपदेश करता हूँ. सुनो- ___ जब तक तुम लोग (१) कर्म (२) भस्म (३) निद्रा और (8) आमोद में रत न होगे, (५) तुम्हारी पापेच्छा प्रबल न होगी, (६) तुम पापो मित्रों का संग न करोगे और (७) निर्वाण के लिये प्रयत्नशील रहोगे तब तक तुम्हारा अधःपतन न होगा। हे भिक्षगण ! दूसरे सात अपरिहेय धर्म सुनो जब तक तुम (१) श्रद्धावान् (२) वीर्यवान् (३) हीमान् (४) विनयी (५) शास्त्रज्ञ ६, वीर्य्यशाली और (७) स्मृति तथा प्रज्ञावान् रहोगे तव तक तुम्हारा क्षय नहीं होगा। इन के सात अपरिहातव्य धर्म ये हैं जब तक तुम लोग स्मृति, पुण्य, वीर्य्य, प्रीति, प्रश्रधि, समाधि और उपेक्षा नामक सात ज्ञानांगों की भावना करते रहोगे, तब तक तुम्हारा अधःपतन न होगा। इसके अतिरिक्त अन्य सात अपरिहातव्य धर्म सुनो। जब तक तुम लोग अनित्य, अनात्मा, अशुभ, आदीनव, प्रहाण, विराग और निरोध नामक सात प्रकार की संज्ञाओं की भावना करते रहोगे तब तक तुम लोगों का पतन कभी न होगा। . हे भिक्षुगण ! यह षड्विधि अपरिहातव्य धर्म है, सुनो-"जब तक तुम लोग ब्रह्मचारियों से कायिक, वाचिक और मानसिक मैत्री रखोगे और भिक्षा का उनके साथ सम विभाग करके भोजन
पृष्ठ:बुद्धदेव.djvu/२२३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।