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वृत्ति निरोध न समझ ऋद्धियों की प्राप्ति के लिये बड़े बड़े कष्ट सहते थे। उनमें सच्चे वैराग्य का जिसका लक्षण " दृष्टानुश्रावि- 'कविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्" था, नितांत अभाव था और उन लोगों ने "देहदुःखं महत्फलं" मानकर जंगलों में रहकर तप करने ही में अपनी इतिकर्तव्यता समझी थी।

पुरुषार्थ और स्वात्मावलंबन से लोगों का विश्वास हट गया था। चारों ओर आसुरी शक्ति का प्रभाव था और दैवी शक्ति बिलकुल तिरोहित हो गई थी। ऐसे समय में कहीं याज्ञिक रूप में,कहीं योगियों के रूप में, कहीं क्षत्रियों के रूप में, चारों ओर आसुरी संपत्ति के लोगों ही की प्रधानता थी। दैवी संपत्ति के लोग या तो थे ही नहीं, औरयदि थे भी वो किसी कोने में पड़े अपना काल-क्षेप कर रहे थे। प्रकृति के लिये आवश्यक था और समय आ गया था कि यहाँ कोई महापुरुष अवतार ग्रहण करे और आसुरी माया का ध्वंस करके शुद्ध आर्य धर्म का अभ्युत्थान करे जिसकी प्रतिज्ञा भगवान् कृष्णचंद्र ने महाभारत के समय में अर्जुन से की थी-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।