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( २०५ ) - महात्मा बुद्धदेव राजगृह से चलकर कपिलवस्तु होते हुए श्रावस्ती गए और वहाँ जेतवन विहार में ठहरे। इसी बीच में देवंदत्त की बीमारी ने भोपण रूप धारण किया । वह अपने जीवन से निराश हो गया। सारे जीवन के दुष्कर्म और कपट तापसता उसकी आँखों के सामने फिरने लगी। अंत को वह निराश होकर कोकाली आदि अपने चारों शिष्यों को लेकर पालकी पर चढ़ महात्मा बुद्धदेव से क्षमा-प्रार्थना करने के लिये श्रावस्ती को रवाना हुआ। कई दिन चलकर वह श्रावस्ती में पहुंचा और जेतवन विहार के उत्तर फाटक पर एक तालाब के किनारे उतरा। वहाँ उसने स्नान करना चाहा और यह निश्चय किया कि स्नान कर के महात्मा बुद्धदेव के आगे जाकर क्षमा माँगे । लोगों ने उसे आते देख बड़ा कोलाहल मचाया और भगवान् बुद्धदेव को उसके आगमन की सूचना दी। बुद्धदेव ने लोगों को व्याकुल देखकर कहा-"तुम लोग घबराओ मत, देवदत्त यहाँ नहीं पा सकता।" कहते हैं कि देवदत्त स्नान करने के लिये ज्यों ही तालाब में घुसा, चाहे दुर्बलता के कारण होवा तालाब . में दलदल रही हो, वह उसी तालाव में फंसकर रह गया और उसके प्राण वहीं निकल गए। इसके अनंतर भगवान् बुद्धदेव अपना अट्ठाइसवाँ चातुर्मास्य -श्रावस्ती में कर के राजगृह को रवाना हुए। वे पहले कपिलवस्तु के .

न्यग्रोधाराम में पहुँचे । सुप्रबुद्ध जोभगवान बुद्धदेव का श्वसुर और

..देवदत्त का पिता.था, अपने पुत्र देवदत्त के मरने का समाचार सुन- .कर मन ही मन जल रहा था। वह उनको गाली; देता हुआ उनके