( १९८ ) सुख और ऐश्वर्य भोग रहे हैं, संसार में बड़े बड़े राजा है जिनकी स्त्रियाँ श्राभूपणों से लदी है, वे लोग अच्छे अच्छे घोड़ों से युक्त' रथों पर पड़ते हैं, अच्छे अच्छे घरों में रहते हैं, उनके पास अच्छी अच्छी गौएँ हैं, अनेक दास दासियाँ हैं तो उनके मुँह से लार' टपकने लगी । तब उन लोगों ने अनेक मंत्रों की रचना की और वे महाराज इक्ष्वाकु के पास गए और उन से बोले-'महाराज ! श्राप धन-धान्य संपन्न हैं, आप को यज्ञ करना चाहिए, श्राप यज्ञ कीजिए। उनके कहने से महाराज इक्ष्वाकु ने अनेक अश्वमेध, पुरुषमंध, वाजपेयादि यज्ञ किए और उन ब्राह्मणों को अनेक गौएँ, शैय्या, वस्त्र, धनधान्य, दास, दासी, रथ, घोड़े आदि दक्षिणा में दिए । जब वे लोग इक्ष्वाकु से धनधान्य आदि दक्षिण में लेकर अपने अपने घर गए और आनन्द से दिन काटने लगे, तब उनकी तृष्णा और बढ़ गई और वार बार नए नए मंत्रों की रचना कर के उन्हों इस्वाकु से अनेक यज्ञ कराए और विपुल धनधान्य प्राप्त किया। उस यज्ञ में सहस्रों पड़े दूध देनेवाली गौएं मारी गई जिसे देख कर देव, पितर, इंद्र, राक्षस आदि सभी चिल्लाकर कहने लगे कि" यह गोहिंसा का घोर अधर्म हो रहा रहा है। इसके पूर्व मनुष्यों में केवल इच्छा, भूख और बुढ़ापा ही था, कोई रोग नहीं थे और पशुओं की हिंसा से ही अट्टानबे रोग उत्पन्न हुए । यज्ञों में इस हिंसा रूपी अधर्म का प्रचार इक्ष्वाकु के समय से प्रारंभ हुआ। इस प्रकार के धर्म को पुराना होते हुए भी गर्हित जानना चाहिए, और जो लोग ऐसा जानते हैं वे याजकों को गहित समझते हैं।
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