और वे ब्रह्मनिधि वा वेदों की रक्षा करते थे। लोग चलि वैश्वदेव में जो भाग निकालकर द्वार पर रख देते थे, उसी को खाकर वे लोग अपना और अपने शिष्यों का निर्वाह करते थे। उस समय लोग बड़े सुखी थे और सब लोग धन-धान्य और रत्न आदि से संपन्न थे और सब ब्राह्मणों का आदर करते थे। ब्राह्मण लोग अवध्य, अजेय और धर्म के रक्षक होते थे; वे आचार, विद्या और यज्ञों का पालन तथा आचरण करते थे। ब्राह्मण लोग पर-स्त्री- गमन नहीं करते थे। वे लोग इतर वण को ब्रह्मचर्य, शील, श्रार्जव, मृदुता, तप, सौवर्च और अहिंसा तथा शांति की शिक्षा देते थे। उनमें जो सब से बड़ा, विद्वान् और बढ़पराक्रम होता था वह ब्रह्मा कहलाता था। यह ब्रह्मा आजन्म ब्रह्मचारी रहता था और स्वप्न में भी अपना वीर्य स्खलित नहीं होने देता था। ब्राहमण लोग चावल, घी, तेल वस्त्र आदि गृहस्थों से माँगकर लाते थे और उसी से धर्मपूर्वक अग्निहोत्रादि यज्ञ करते थे। उनके यज्ञों में गौ आदि पशुत्रों की हिंसा कभी नहीं होती थी। उनका यह कथन था कि जैसे माता, पिता, भाई बंधु हैं, वैसे गौएँ भी हैं। उनसे औपध रूपी दूध का लाभ होता है । गौएँ अन्नदा, बलदा, बुद्धिदा और वर्णदा हैं । उस समय के ब्राह्मण महाकाय; वर्णवान, यशस्वी, अपने धर्म में परायण और कर्तव्यों के पालन में उत्सुक होते थे । जव तक ब्राह्मणों का ऐसा आचरण रहा तब तक वोसुख, मेधा, स्त्री और प्रजा से संपन्न थे। पर धीरे धीरे पीछे के ब्राह्मणों की प्रकृति बदल गई । जब उन लोगों ने देखा कि इतर वर्ण भी
पृष्ठ:बुद्धदेव.djvu/२१०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।