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वेदों की संहिताओं का फिर से विभाग किया और वेदांतदर्शन की रचना की। इसी समय में व्यास जी के शिष्य जैमिनि ने मीमांसा शास्त्र रचकर यह स्पष्ट कर दिया कि फेवल विधि-वाक्य की ही शब्दप्रमाणता है। इसके थोड़े ही दिनों पीछे महामुनि शाकटायन ने निरुक्त शास्त्र की रचना की और संस्कृत भापा के लिये व्याकरण रचा। पर थोड़े ही दिनों पीछे याज्ञिकों को फिर भी प्रबलता हो गई और आध्यात्मिक पक्ष दब गया। अब की चार याज्ञिकों का दल बहुत प्रवल हुआ। इस समय बड़े बड़े अश्वमेध गोमेधादि यज्ञ हुए जिनमें दिए हुए निष्क अब तक भारतवर्ष के खंँडहरों में निकलते हैं। इन निष्कों पर घोड़े, वैल आदि के चिह्न अश्वमेध, गोमेध आदि यज्ञों के द्योतक बने हुए मिलते हैं। श्रौत्रसूत्रों का निर्माण प्रायः इसी काल में हुआ था। महर्षि पाणिनि जी ने अष्टाध्यायी रचकर याज्ञिकों के रूढ़ि अर्थ की बड़ी सहायता की और याज्ञिकों ने इनके व्याकरण को अपनाकर शाकटायनादि व्याकरणों के प्रचार में बाधा डाली।

इस नए युग में अध्यात्मवाद विल्कुल व गया था और दर्शनों का प्रचार अत्यंत कम हो गया था। हाँ योगशास्त्र का भले ही कुछ योगियों में प्रचार रह गया था जो अष्टांगयोग के अंतरंग प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की ओर न जाकर केवल बहिरंग यम, नियम, आसन और प्राणायाम ही का करना अंपनी इतिकर्तव्यता समझते थे और योग का फल चित्त-