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( १९६ ) नहीं करता वही युपला है। जो पाप कर के उसे छिपाता है, वही वृपल है । जो बाहाण, श्रमण वा अन्य त्यागी पुरुषों को मूल कह कर धोखे में डालता है, जो माहाण, श्रमणादि, अतिथियों को भोजन के समय आने पर भोजन नहीं देता और उनसे क्रोध- पूर्वक कटु भापण करता है, वही पल है । कहाँ तक कहें, जो पापो । वा दुष्ट होकर अपने को पूज्य और साधु प्रकट करता है, वह चोर प्राप्माण होते हुए भी पलाधम है । हे भारद्वाज ! जन्म से न कोई ब्राह्मण होता है और न कोई वृपल, कर्म ही से मनुष्य ब्राह्मण और कर्म ही सेयपल होता है। देखो, मातंगऋषि चांडाल के घर में उत्पन्न हुए थे, पर वे कर्म से प्राप्मण हो गए थे। उनके पास बड़े बड़े ब्रह्मपि और राजर्पि उपदेश के लिये आते थे। वे विशुद्ध देवयान होकर काम और राग को वशीभूत कर के ब्राह्मलोक गए और उन्हें उनकी जाति ने ब्रह्मलोक जाने से न रोका। कितने मंत्रकार ऋपियों के गोत्र में उत्पन्न पुरुप पापकर्म करने से दुर्गति को प्राप्त हुए हैं। उन्हें उनकी जाति दुर्गति से न बचा सकी ।": .. .. ___ इसी प्रकार एक दिन बुद्धदेव के पास अनेक ब्राह्मणों ने आकर उनसे प्रार्थना की कि-गौतम ! आप प्राचीन ऋषियों का बहुत गुणगान किया करते हैं। भला यह तो बताइये, उन ऋषियों का धर्म क्या था, और उनके धर्म में कैसे कैसे विकार उत्पन्न हो । गया।" इस पर बुद्धदेव ने कहा--"प्राचीन ऋषि लोग संयतात्मा और तपोधन थे । कहाँ तक कहें, वे अपने भोजन के लिये धान्य का भी.संग्रह नहीं करते थे। उनका, स्वाध्याय ही धन-धान्य था