(३१) श्रावस्ती राजगृह त्याग कर भगवान बुद्धदेव श्रावस्ती पहुँचे और जेतवन- 'विहार में ठहरे । यहाँ थोड़े दिन रहकर वे फिर देशाटन को निकले और भिन्न भिन्न स्थानों में उपदेश करते हुए वर्षा ऋतु के आगमन पर श्रावस्ती में लौट आए और उन्होंने अपना इकीसवाँ चातुर्मास्य जेतवन-विहार में व्यतीत किया। इस प्रकार भगवान बुद्धदेव श्रावस्ती में पञ्चीस वर्ष तक अपने चातुर्मास्य..व्यतीत करते रहे । यद्यपि वे -शरद् ऋतु में कुछ दिनों के लिये फपिलवस्तु, कुशीनार, पावा, कौशांबी, काशी, वशाली, राजगृह आदिस्थानों में यथाभिरुचि भ्रमण के लिये चले जाया करते थे और लोगों को अपना अमूल्य उपदेश 'अनेक उपचारों से देते थे, पर फ़िर मोवे अपना विशेप काल श्रावस्ती ही में बिताया करते थे। उनके उपदेशों से सारा त्रिपिटक परिपूर्ण है। पर यहाँ दो एक ऐसी घटनाओं का उल्लेख करना उपयोगी जान पड़ता है जिनसे इस बात का ठीक ठीक परिचय मिलता है कि महात्मा बुद्धदेव ने किसी नवीन धर्म की शिक्षा नहींदी, किंतु उन्होंने प्राचीन "ऋपियों के आध्यात्मिक विज्ञान का ही, जिस पर कर्म कांड और पाखंड का आवरण चढ़ गया था, परिमार्जित रूप से उपदेश किया था।
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