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( १९२ ) चिकित्सा किया करता था। एक बार लोग, देश में रोग फलने पर केवल सुलभ चिकित्सा के लालच से भिक्षु वन संघ में घुसकर भगवा वस्त्र पहन विना सगे वैराग्य के भितु हो गये थे और जीवक को विवश है। उनकी चिकित्सा करनी पड़ती थी । जव भगवान् बुद्धदेव को यह भेद मालूम हुआ, तब उन्होंने आगे के लिये यह नियम कर दिया कि अब से कोई रोगी पुरुप संघ में भितु बनाकर न लिया जाय । जीवक ने राजगृह में भगवान के लिये एक विहार भी बनवाया था, जहाँ भगवान बुद्धदेव कभी कभी जाकर रहा करते थे। भगवान् के बुलाने पर जीवक तुरंत उनके पास दौड़ा हुआ आया और उसने उनको चोट की मरहम पट्टी की । उस. समय जीवक ने भगवान बुद्धदेव से पूछा- "महाराज ! लोग आपको जीवन्मुक्त कहते हैं, पर क्या आपको भी विविध ताप सताते हैं और शरीर में कष्ट होता है ?" इस पर बुद्धदेव ने कहा- गतद्धीनो विसोकल्स विप्पमुत्तस्स सम्बधी। सजग्गंठपहीनस्स परिणहोन विजति ।।

हे जीवक ! रोगहीन, शोकहीन, सर्वधी और विप्रमुक्त पुरुष को

जिसकी सव ग्रंथियाँ छूट गई हों, कष्ट अवश्य होता है। पर उस कष्ट से उसे राग द्वेप नहीं उत्पन्न होता, वह संसार का धर्म समझ उसे सहता है । सुख-दुःख उसे होते तो हैं, पर उनसे उसकी वृत्ति में चंचलता नहीं आती । यही बद्ध और मुक्त में अंतर है। जीवक .