. ( १८८ ) था और संदा उसी के कहने में रहता था। देवदत्त ने कई वर्ष राज- गृह में रहकर उस पर अपना आतंक जमा लिया था और अनेक 'साधुओं को अपना अनुयायी बना लिया था जिनमें कोकालिक, कंतमोरतिष्य, खंडदेव और समुद्रदत्त उसके प्रधान शिष्य थे। • एक दिन देवदत्त ने भगवान बुद्धदेव के पास जाकर संघ के मितओं के लिये पाँच वातें स्वीकार करने के लिये प्राग्नह किया। वे पांचौ बातें ये थी- १-भिक्षु आजीवन वन में रहें और भिक्षा के सिवा और किसी कार्य के लिये प्राम वा नगर में प्रवेश न करें। २-भिक्षु सदा वृक्ष-मूल वा श्मशान में अपना वास रखे और जाड़े, गरमी, या बरसात में कमी पर्णशाला वा आराम में न रहें । ३-मितु सदा पांसुकूल धारण करें और किसी का दिया वस्त्र धारण न करे। १-भितु सदा टुकड़ा माँगकर खायें और किसी एक घर में भोजन नकरें। ५ भिक्ष सदा निरामिष भोजन करें और मिता में भी सामिष भोज्य पदार्थ ग्रहण न करें। देवदत्त का यह प्रस्ताव सुन कर भगवान बुद्धदेव ने स्पष्ट शब्दों में इसका निषेध कर दिया और कहा- मैं केवल कृत, दृश्य और उद्दिष्ट हिंसा का निषेध करता हूं। मैं इन कों को श्रेष्ठता अवश्य खीकार करूँगा, पर संघ के लिये उन्हें ऐसा कर्तव्य नहीं ठहरा
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