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मात्र से मीठी बातें करना कहाँ शूद्रों को असंभाष्य ठहराना और 'स्त्रीशूद्रद्विजवधूनां प्रयी नभूतिगोचरा' से उन्हें शिक्षा से पंचित रखना! विशुद्ध अध्यात्मवाद वा ब्रहावाद जिसके विषय में " एकमेव वदंत्यग्निं ननुमेके प्रजापतिम् । इंद्रमेकऽपरे प्राणमपरे नाशाश्वतम्" की शिक्षा वैदिक महर्पियों ने दी थी और जिस सिद्धांत के विषय में महर्षि यास्काचार्य ने "आतचपायो भवति प्रात्माश्व आत्मायुध आत्मा सर्व देवस्य देवत्य " कहा था, वह देवतावाद के परदे में छिप गया था। सब लोग पुरुपार्थहीन हो प्ररान देवताओं से जो उसी सर्वात्मा ग्रह के अवांतर वा शक्ति भेद थे और जिनकं विपत्र में निरुक्तकार ने स्पष्ट शब्दों में “ एकस्यात्मनोऽन्ये देवा प्रत्यनानि भवन्ति " कहा था, उपयोग लेने की जगह उन्हें अपरोक्ष और अलौकिक मान उन्हें आहुतियों से प्रसन्न कर उनले परलोक में सहायता की अभिलापा रखते थे। हिंसा का प्रचार इतना बड़ा था कि बड़े यज्ञों से लेकर गृहकर्मों तक और श्राद्ध से लेकर आतिथ्य- सत्कार तक कोई कृर ऐसा न था जो हिंसा और मांस के बिना हो सके। __ दर्शनों का सूत्रपात यद्यपि बहुत पूर्व काल में, वैदिक युग में ही, महर्षि कपिल जी ने किया था और तब से समय समय
- ययेनां याचं कल्यापीमायदानि धनेभ्यः ।
ब्रह्मरामन्याभ्यां शूद्राय पार्श च स्याव पाराय जय.२६।२