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(२४) दसवाँ चातुर्मास्य कौशांबी में नवें चातुर्मास्य के अंत में संघ में सौत्रांतिक और विनयांतिक भाचार्यों में मतभेद हो गया । मतभेद का कारण अत्यन्त तुच्छ था । विनयानुसार पाखाना फिरने के पीछे पानी के लोटे को उलटकर रखने का विधान है और अब तक अयोध्या के आसपास की ऐसी ही परिपाटी है। एक दिन किसी सौत्रांतिक आचार्य ने भूल से पाखाने का लोटा औंधा नहीं किया । इस पर विनयांविकों ने बड़ा कोलाहल मचाया। बात बढ़ती गई और द्वेष को आग इतनी बढ़ गई कि महात्मा बुद्धदेव के भी शांत करने पर शांत न हो सकी। महात्मा बुद्धदेव को भिक्षुओं की इस उद्दडता से बड़ा दुःख हुआ। महात्मा बुद्धदेव कौशांबी से श्रावस्ती गए, पर वहाँ भी वह विरोधाग्नि जो मौलि नामक भिक्षु ने प्रज्वलित की थो, शांत न हुई। बुद्धदेव वहाँ से अकेले आनंद को साथ ले चुपके से मगध की ओर भाग निकले और राजगृह भी न जाकर वहीं एक जंगल में जिसका नाम पललेय वन था, चले गए और वहाँ उन्होंने अपना दशम चातुर्मास्य व्यतीत किया। *। ___ उसी वर्ष देवदत्त भी, जब वे कौशांबी में थे, आनंद, सारिपुत्र और मौद्गलायन की प्रधानता न सहकर रुष्ट होकर संघ से राज- काते हैं कि इस पन्तुर्मास में भगवान् ने शानंद को भी बन के बाहर ही बोड़कर धकेले उस पोर कानन में एक वृक्ष के नीचे मौन होकर पातुर्मास्य व्यतीव विया पार पातुर्मास्य में केवल एक हाबी और सदर उन बन्द भूल लाकर दिया करते थे।