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राज! जिस श्यमावती पर आप इतने मुग्ध हैं, उसने अपने जार से वार्तालाव करने के लिये अपने महल में एक रंधू बना रखा है। मैंने उस रंधू को स्वयं अपनी आँखों से देखा है; और जब मैंने उससे रंधू बनाने का कारण पूछा तब वह भौचक्की सी रह गई। आपको यदि मेरी बातों में आपत्ति हो तो आप स्वयं श्यामावती के महल में जाकर देख लीजिए कि अमुक स्थान में रंधू है वा नहीं।" राजा यह सब सुन विस्मित होकर रह गया और मागंधी ने समझा कि अब मैं अपने प्रयत्न में सफलीभूत हो गई। एक को तो आज ले लिया, अब दूसरी वासवदत्ता रह गई । यदि हो सका तो किसी न किसी दिन उसका भी मान धंस कर मैं अकेली महाराज की प्रेमपात्री महिपी बनूंगी।

दूसरे दिन जब महाराज उदयन श्यामावती के प्रांसाद में गए तत्र उन्होंने उस स्थान पर जहाँ मागंधी ने बतलाया था, रंधू देखा ।महाराज ने श्यामवती को बुलाकर रंधू का कारण पूछा तो उसने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि मैंने यह रंधू भेगवान्के दर्शन के लिये बनवाया है और मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि आप भी ऐसे महापुरुष के दर्शन करें, और एक दिन आप उन्हें निमंत्रित कर के भोजन कराने की मुझे आज्ञा दें। राजा को श्या-मावती की यह स्वष्टवादिता बहुत रुची और उन्होंने तुरंत आज्ञा दी कि यहाँएक खिड़को लगा दी जाय। उन्होंने श्यामावती को भगवान्बु द्धदेव को भिक्षा कराने की आज्ञा दी और श्यामावंतीने बड़े उत्साह के और हर्ष से भगवान को उनके संघ समेत एक दिन निमंत्रित करके