( १६२ ) मागंधी तो यह बात सुन मन ही मन जल भुनकर. रह गई, पर ब्राह्मण के हृदय पर इसका प्रभाव पड़ा। वह ससझ गया कि यह कोई महापुरुप हैं जो इस प्रकार स्त्री-रत्न का तिरस्कार कर रहा है। उसने भगवान से पूछा-" हे भगवन् । आप इस प्रकार सर्व लक्षणयुक्त नारी-रत्न का जिसकी बड़े बड़े राजा चाहना करते हैं, तिरस्कार करते हैं । दार-परिग्रह की महिमा शास्त्रों में वर्णन की गई है। फिर आप यह बतलाइए कि शीलवताननुजीवी पुरुषों को कैसे भवोत्पत्ति होती है ?" भगवान ने कहा-"हेमागंधिय ! सांसारिक लोगों की न तो धर्म में प्रवृत्ति होती है और न वे यथेच्छ आध्या- मिक शांति लाभ कर सकते हैं। आध्यात्मिक शांति न दृष्टि से, न श्रुति से और न ज्ञान से प्राप्त होती है । शीलव्रत भी आध्यत्मिक शुद्धि नहीं दिला सकता । पर इतने से यह न समझना कि ये निर- र्थक हैं और इनका त्याग करने से ही शुद्धि प्राप्त होती है । जब तक सम, विशेष और हीन का भाव बना रहता है तभी तक विवाह है। जिस मनुष्य को भेदभाव कंपित नहीं कर सकते, भला वह किससे विवाह करेगा । इस प्रकार जो भेदभाव-शून्य हो, गृहाश्रम त्याग कर विरक्त हो, संन्यास-ग्रहण कर लोक में विचरता हो, वही नाग वा अधिकारी है। वह कमल-पुष्प की तरह जल और पंक से उत्पन्न होने पर भी जल और पंक से लिप्त नहीं होता । वेदज्ञ पुरुष भी यदि दृष्ट और आनुनाविक सुखों में अनुरक्त हो तो वह समान वा समाधि को नहीं प्राप्त कर सकता । किंतु वह दृष्ट और प्रानुश्राविक सुखों में तन्मय रहता है। ऐसे पुरुष को क्या कर्म और क्या श्रुति .
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