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मुझे दुःखमय जान पड़ता है । मैं विवश होकर कपिलवस्तु से इतनी शाक्य स्त्रियों को साथ लेकर प्रव्रज्या लेने के संकल्प से यहाँ आई हूँ। पर मुझे कुमार के पास जाकर फिर प्रार्थना करते डर मालूम होता है कि कहीं वे फिर अस्वीकार करें। इसी लिये मैं यहाँ बैठी अपने भाग्य को रो रही हूँ। आनंद उन्हें धैर्य दे कर महात्मा बुद्धदेव के पास गया और वहाँ उसने प्रजावती के आने कासमाचार कह सुनाया । महात्मा बुद्धदेव ने पहले तो इन्कार किया और कहा कि स्त्रियों कि प्रव्रज्या का सदा निषेध है। ब्रह्मचर्या बहुत कठिन है। जव पुरुष उसके पालन करने में असमर्थ हैं, तव स्त्रियों से क्या आशा की जा सकती है। पर आनंद के बहुत कुछ कहने सुनने पर उन्होंने महाप्रजावती को अष्टांगिक * धर्म खीकार करने के लिये कहा और उसे वचन दिया कि इनके स्वीकार करने पर वे संघ में ली जा सकती हैं। आनंद महात्मा बुद्धदेव की आज्ञा पा हँसता -
- भिक्षुणी के अष्टांगिक धर्म ये हैं। [१] भिक्षुणी को, यदि षयो.
घृता हो तो भी, मपीन और युपक भिक्षु की भी प्रविष्ठा करना । (२) पहां भितु म हों, ऐथे शून्य स्थान में चातुर्मास्य न करना । [३] पूर्णिमा और अमावास्या के दिन भिक्षुओं से उपदेश सुनना। [४] चातुर्मास्य के अंव में मिथुनों के साथ संकल्प- निवृत्ति करना । (५) प्रति वर्ष संघ के समक्ष पापदेशना करना । [६] भिक्षुणी होनेवाली स्त्रियों को दो वर्ष तक अपने सामने स्वधर्म की शिक्षा देकर उन्हें भिक्षुणी बनाने के लिये भिक्षु और भिक्षुणियों के संघ में उपस्थित करना। [0] भिधों की निंदा या उन पर कटाक्ष न करना। [८] भितुओं के उपदेश के अनुसार चलना ।