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परिवार और बंधुओं को अपने उपदेश से शांति प्रदान करते रहे और उन्हें दान, शील, धर्म, ब्रह्मचर्य्यादि का उपदेश देते रहे। उनके उपदेश सुनकर उनकी विमाता महाप्रजावती और अन्य शाक्य स्त्रियों ने ब्रह्मचर्य्य ग्रहण करने और भिक्षुणी होने के लिये अपनी इच्छा प्रकट की। पर भगवान् ने उन्हें यह कहकर टाल दिया कि ब्रह्मचर्य्य का पालन स्त्रियों के लिये गृहत्याग की अवस्था में अत्यंत कठिन है। वे विचारी निराश हो रोती हुई रह गईं।

थोड़े दिन कपिलवस्तु में रहकर और शाक्यों को सांत्वना दे कर भगवान् बुद्धदेव अपने संघ समेत वैशाली को रवाना हुए। कई सप्ताह में मार्ग चलकर वे वैशाली पहुँचे। उन्हें वहाँ पहुँचे बहुत दिन न हुए थे कि प्रजावती गौतमी पाँच सौ शाक्य स्त्रियों को लेकर नंगे पाँव कपिलवस्तु से राह के कष्ट झेलती हुई वैशाली पहुंची। पर भगवान् ने उसे कपिलवस्तु ही में प्रव्रज्या ग्रहण करने का निषेध कर दिया था, इसलिये उसे फिर उनके पास जाने का साहस न होता था। निदान वह थकी हुई एक वृक्ष के नीचे अपनी साथिनियों समेत बैठ कर रो रही थी कि अचानक आनंद, जो कहीं से आ रहा था, उन्हें मिल गया। आनंद ने प्रणाम कर महाप्रजावती से वहाँ आने और बैठकर रोने का कारण पूछा। प्रजावती ने रोकर कहा-"आनंद! मैंने कुमार से कपिलवस्तु में ब्रह्मचर्य्य पालन और प्रव्रज्या ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की थी,पर उन्होंने मुझे प्रव्रज्या देने से इन्कार कर दिया था। पर मुझे संसार से विराग हो गया है। सारा जगत्