यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- (१८) चतुर्थ चातुमास्र्य तृतीय चातुर्मास्य के विगत हो जाने पर इसी साल भगवान् बुद्धदेव को लिछिवी के महाराज की प्रार्थना से वैशाली जाना पड़ा। .. राजगृह की उत्तर दिशा में गंगा के वाएँ किनारे पर वैशाली का राज्य था। वहाँ उस समय लिछिवी राजवंश का अधिकार था। वह राज उस समय बड़ा ही समृद्धिशाली था। पर उन दिनों जव भगवान् बुद्धदव राजगृह में ठहरे हुए थे, तब वैशाली में घोर दुर्भिक्ष पड़ा जिससे प्रजा बहुत दुखी हुई । दुर्भिक्ष रोग से पीड़ित प्रजा पर जनक्षयकारी अहिवात रोग फैला जिससे सारे राज्य की प्रजा न्या- फुल हो गई। लिछिवी महाराज को प्रजा की यह दशा देख बड़ी चिंता हुई। वे व्याकुल हो गए और अपने मन्त्रियों को बुलाकर दुर्मिक्ष और अहिवात रोग के निवारणार्थ उपाय पूंछने लगे । मंत्रियों में से इस आपत्ति के निवारणार्थ किसी ने पूरणकश्यप को, किसी ने मस्करीगोशाल को, किसी ने निर्मथ-नाथपुत्र को, किसी ने अजित केशकंबल को, किसी ने ककुधकात्यायन को और किसी ने संजय वेलस्थिपुत्र को बुलाने के लिये कहा ॐ । इसी बीच में किसी ____ * महात्मा बुद्धदेव के समय में उनके अतिरिक्त छ और संशोधक भगध के पास पास अपने सिद्धांत का प्रचार कर रहे थे। उन संशोधर्को को बौडययों में तीर्य कर लिखा है और उनका नाम पूरणकरवप आदि कहा गया है। [१] पूरणकश्यप का पिता ब्राह्मण और माता विजा- 'तीवा थी । वह पहले कहीं दरवान था और वहीं उसे वैराग्य उत्पन्न