. ( १४४ ) थे। धूप लगने से चावल में से पाई निकल निकलकर अपनी प्राण रक्षा के लिये बाहर भाग रहे थे और पक्षी उन्हें खा रहे थे। उस समय पिप्पल की दृष्टि दैवयोग से उन पाइयों पर पड़ी। उसने अपने मन में उनकी दशा,देख, विचार किया तो..उसे गृहस्थाश्रम हिंसापूर्ण कर्म दिखाई पड़ा, जिसमें रहकर कभी मनुष्य हिंसा से सर्वथा वच नहीं सकता । विशेषकर, कृषि-कर्म तो उसे सर्वथा परमार्थ का बाधक प्रतीत होने लगा। उसके अंतःकरण में विराग उत्पन्न हुआ और उसने यह निश्चय किया कि चाहे जो हो, अब मैं अवश्य गृहस्थाश्रम परित्याग करूँगा; उसने, अपने चित्त में विराग उत्पन्न होने का समाचार अपनी सहधर्मिणी भद्रकापिलानी से कहां और वह भी उसके साथ गृहत्याग करने को उद्यत हो गई । रात के समय पिप्पलकाश्यपाऔर उसकी स्त्री भद्रकापिलानी दोनों घर से निकलकर चुपके से. राजगृह की ओर. भाग निकले. । थोड़ी दूर तक तो दोनों एक ही मार्ग पर आगे पीछे गए;:पर आगे चल कर वह मार्ग दो शाखाओं में फूट गया था। उस स्थान पर पहुंचे कर पिपल ने भद्रकापिलानी से कहा - कापिलानी ! हम लोग घर से वैराग्य प्राप्त कर के निकले हैं। हमारा उद्दश्यं संसार त्याग करना है। जब हमें वैराग्य प्राप्त हो गया, तो फिर साथ रहकर राग उत्पन्न करना अच्छा नहीं है । विधाता को भी यही ठीके जंचता है.। देखो, आगे के मार्ग की दो शाखाएँ हो गई हैं, एक दक्षिण को जाती हैं और एक वाम को। अब हम लोगों को पृथक् होना चाहिए। मैं पुरुष हूँ, अतः मैं स्वभाव से दक्षिण का मार्ग:ग्रहण
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