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देवता की पूजा के अतिरिक्त जिसका प्रचार के पूर्व युगों से कश्य- पीय सागर से गंगा यमुना के किनारे तक था, जिसने सविता आदि नए देवताओं की उपासना का प्रचार किया था, तथा पूर्वकाल से प्रचलित । नरमेध यज्ञ की प्रथा को एकदम उठा दिया था, कुछ

  • दे० ऋ० में०१,०१, मं१

अग्निः पूर्वभि पिभिरीमो नूतनत। ___प्राचीन काल से पार्यगण अग्मिदेवता की ही पूजा करते थे। पिण्या- मित्रजी ने सपिता धादि भनेफ नए देवतों का पता पलाया और उनकी उपासना का प्रचार किया, गायत्री मंत्र की रनया की। तय से भार- तीय नायौं और पारसी (ईरागीय) साप्यों में भेद पड़ गया । पार- सीय प्रायों का मुख्य देवता अग्नि बना रहा, पर भारतीय पार्यों ने सविता देयता की प्रधानता से उपासना करनी प्रारम की । इंद्र को जो सविता ही का रूपांतर था, समस्त देवानी का अधिपति धनाया। ऐसा फेरने में पिश्वामित्र जी का पश्चिमी भाच्या ने, जिनके प्रधान याचक वशिष्ठ थे, विरोध किया। पर विश्वामित्र जी की प्रतिमा की ख्याति कश्यपं सागर वया फैल गई और सिंधु पार के मुदास पैसपन ने उन्हें अपने यहां यज्ञ कराने के शिये बुलाया। पशिष्ठली ने पहले तो मुदास फो समझाने की चेष्टा की और उनकी बड़ी यही खुशाम की; पर उसने एक न माना, वय विश्वामित्र जी का विरोध करने पर उतारू हो गए । उन लोगों ने विश्यामित्र जी को पकढ़ा, यांधा, लूटा और पशुत तंग किया। यह सय कथा ऋग्वेद में०३ और से निकलती है। इसी आधार पर पुराणों में विश्वामिन और धशिष्ठ के झगड़े को गया गढ़ी गई है। मार्यों में बहुत पूर्वकाल से नरमेध की प्रथा भी। ऐतरेय धौर कौपीवक ब्राह्मणों के देखने से ज्ञात होता है कि विश्वामित्र के समव में हरिश्चंद्रवैधस् नामक एक राजा था । उसके कोई पुत्र न था।