( १२८ ) सार ने भगवान् को ससंघ अपने प्रासाद में भोजन करने के लिये आमंत्रित किया। .. दूसरे दिन भगवान बुद्धदेव अपना साधुसंघ लिए महाराज विवसार के प्रासाद में भिक्षा करने के लिये पधारे । राजा विंवसार ने बड़े प्रेम से भगवान बुद्धदेव को भिक्षुसंघ समेत उत्तम भोजन कराया और चलते समय विवसार ने वेणुवन नामक अपना उद्यान कुशोदक ले भगवान् को उनके संघ के लिये दान दिया.। .. . भगवान बुद्धदेव अपने संघ समेत यष्टिवन से चलकर वेणुवन में पधारे और वहाँ रहकर अपने शिष्यवर्गो तथा आगंतुक गृहस्थ आदिकों को उपदेश करते रहे। उन दिनों राजगृह के पास संजय नामक एक परम विद्वान् परिव्राजक रहते थे। उनके मठ में दो सौ परिव्राजक रहते थे। उन परिव्राजकों में दो, परम विद्वान् परिव्राजक थे. जिनका नाम सारिपुत्र और.मौद्गलायन था। सारिपुत्र उपतिष्य ग्राम के परम समृद्धिशाली वंकत नामक ब्राह्मण का पुत्र था। उसकी माता का नाम रूपसारी था और इसी लिये उसको लोग सारिपुत्र कहते थे। मोद्गलायन कोलित ग्रामनिवासी सुजात ब्राह्मण का पुत्र था जिसे लोग उसकी माता मौद्गली के नाम से मौद्गलायन कहते थे। उन दोनों ब्राह्मण- कुमारों में बड़ी मित्रता थी।वे दोनों मित्र एक दिन राजगृह के पास सुप्रतिष्ठित नामक तीर्थ के मेले में आए थे और वहीं उन दोनों ब्राह्मणों को वैराग्य उत्पन्न हुआ और दोनों ने संजय परिवा- जक के आश्रम में जाकर संन्यास ग्रहण किया था। वहाँ वे दोनों
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