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( १२७ ) त्यग क्यों किया ? उरुविल्वकाश्यप ने कहा- यज्ञों के करने का फल केवल स्वर्गमात्र है। स्वर्ग में रूप, शब्द, रस, आदि तथा स्त्रियाँ और कामनाएँ हैं और यह उपाधियों में मलवत् हैं; यह जानकर मेरा चित्त अग्निहोत्र और इष्टियों में नहीं लगता ।" यह कहकर उरुविल्वकाश्यप भगवान बुद्धदेव के चरणों पर यह कहते हुए गिर पड़ा कि-"आप ही मेरे शासक हैं और मैं आपका श्रावक हूँ।" काश्यप की यह बात सुन उन ब्राह्मणों की शंका जाती रही और वे लोग शांत हो गए। उस समय भगवान बुद्धदेव ने दान और शील का माहास्य वर्णन कर क्रमशः संसार की असारता दिखाते हुए चारों आर्य सत्य दुःख, समुदय, निरोध और मार्ग का उपदेश किया। सव लोगों ने भगवान् बुद्धदेव का उपदेश सुना। विवसार और उनके साथी ब्राह्मणों की आँखें खुल गई और उन लोगों ने बुद्धदेव का नया धर्म स्वीकार कर लिया। राजा विवसार' ने भगवान बुद्धदेव से कहा-" महाराज! मैंने पूर्व में पाँच काम- नाएँ की थीं। पहली यह कि मैं राजा होऊँ, दूसरी, मेरे राज्य में सम्यक् संबुद्ध पवारें, तीसरी, मैं भगवान बुद्ध की पूजा करूँ, चौथी भगवान् बुद्ध हमारे सामने अपने धर्म का उपदेश करें, और पाँचवीं मैं उनका उपदेश ग्रहण कर कृतकृत्य होऊँ। भगवन् , आपके अनु- अह से आज मेरी वे.पाँचों कामनाएँ पूरी हुई।". यह कह विव- रूपे च प्रयी रसे घ, कामेत्यि याचभियदम्ति यना । । । । एतं .मलंति उपधी भुत्वा, तस्मानचिट्ठन हुते महन्जिति । '.