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( १२४ ) जिनसे सुख, दुःख वा सुख और दुःख दोनों से भिन्न वेदना • उत्पन्न होती है, वह भी जल रहे हैं । पर हे भिक्षु ओ ! यह तो समझो कि यह सब किस आग से जल रहे हैं ? हमसे सुनो । यह सब राग की आग से, दोप की आग से और मोह की आग से जल रहे हैं । जाति, जरा, मरण, शोक, परिदेवना, दुःख, दौमनस्य इत्यादि परिणामों से जल रहे हैं । इसी प्रकार श्रोनेंद्रिय और उसका विषय गंध, जिवा और उसका विषय रस, शरीर और उसका विषय स्पर्श,मन और उसका विषय धर्म सव जल रहे हैं। रागानि, दोषाग्नि और मोहाग्नि उन्हें जला रही है। जाति, जरा, मरण, शोक, परिदेवना, दुःख को जानकर श्रुतवान् आर्य श्रावक को उचित है कि वह चक्षु और रूप, श्रोत्र और शब्द, वाश और गंध, जिह्वा और रस, शरीर और स्पर्श तथा मन और धर्म से आसात न हो । निर्वेद प्राप्त होकर विराग को प्राप्त हो। विराग प्राप्त होने से निपिंदति । पक्खुपिनाणेपि नियिंदवि । पक्बुधम्फस्सेपि निव्यिदति । वमिदं चक्षुसम्फस्सपच्चवा उपन्जति, दयित मुखं या दुक्खं वा घट. पणमसुखं धा तस्मिपि नियिंदति । सोतस्मिंपि नियिंदति । सद्देमुपि निबिंदति । पानस्मिंपि नियिंदति । गंधेसुपि नियिंदति । जिव्हायपि नियिंदति । रसेपि नियिंदति । रसेपि निन्दिति । कायस्मिंपि निविंदति फोध्येसुपि मियिंदति । मनस्मिपि निध्विंदति । थम्मेसु पि नियिंन्दति । मनो विनाणेपि निम्पिंदवि । मनोसम्फस्सेपि नियिंदति । यमिदं मनो सम्फस्स पञ्चवा उम्पम्नति वेदवितं सुखं वा दुक्खं वा अदु- खमसुखं वा तस्मिपि निम्मिन्दति । निम्बिदै विरजति । विरागो विरजति । विरतस्मिं विरचम्हीवि प्रासं होति । खीणावादि। बुसितं ब्रमः चरिय । कत करणीयं । नापरं इतत्या वाति पनानातीति । ...