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( १११ ) जिसके लिये इच्छा की जाय और वह न मिले तो वह भी दुःख है, संक्षेप में पंचोपादान स्कंध ही दुःख है। . हे भिक्षुगण ! दुःखसमुदय नामक दूसरा आर्य-सर यह तृष्ण है जो पुनर्भव का हेतु है और नंदिराग के साथ उत्पन्न हुई है और उन उन विषयों में अभिनंदन करनेवाली है। जैसे-कामतृष्णा, मव- तृष्णा, विभवतृष्णा। हे भिक्षुगण ! तीसरा आर्य-सत्य दुःखनिरोध नामक है । यह उस तृष्णा से अशेष अर्थात् पूर्ण वैराग्य-निरोध, प्रतिसर्ग मुक्त और अनालय है। हे भिक्षुगण ! चौथा आर्य-सत्य निरोधगामिनी प्रतिपदा है। इसी आर्य सत्य को अष्टांगिक मार्ग कहते हैं । वे अष्टांग ये हैं- सम्यक्हष्टि, सम्यक्संकल्प, सम्यक्वाचा, सम्यक्कमौत, सम्यगा- जीव, सम्यग्व्यायाम, सम्यक्स्मृति और सम्यक्समावि। . . हे भिक्षुगण ! यह दुःख नामक (पहला) प्रा- सत्य पूर्व धर्मो में सुना नहीं गया था। इसने मुझ में चक्षु उत्पन्न किया, ज्ञान उत्पन्न किया, प्रज्ञा उत्पन्न की, विद्या उत्पन्न की और बालोक उत्पन्न किया। हे भिक्षुओ! यह दुःख नामक आ--सत्य परिक्षेय है। यह पूर्व धर्मों में सुना नहीं गया । इसने मुझ में पशु, ज्ञान, प्रज्ञा, विद्या और आलोक उत्पन्न किया। हे मितुओ! मैंने इस दुःख नामक आ--सत्य को जान लिया । यह पहले घर्मो में सुना नहीं गया था। इसने मुझ में चक्षु, ज्ञान, प्रज्ञा, विद्या और आलोक उत्पन्न किए।