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। १०३ ) हाय ! उत्तम और मध्यम अधिकारी जो थे, वे चल बसे। यदि मैं ज्ञान दूं तो किसे दूँ ? शास्त्रों में अनधिकारी को ज्ञान का उपदेश करने का निषेध है और यह ठीक भी है। जिस प्रकार ऊसर में बोया हुआ वीज निष्फल होता है, वैसे ही अनधिकारी को ज्ञान का उपदेश करना भी निरर्थक होता है। यही नहीं, उल्टे अनर्थ- कारी भी होता है। क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? रोगियों को अपने रोग की खबर नहीं । कोढ़ी अपने कोढ़ को ही आरोग्य का चिह्न समझ रहे हैं। हाय, पाप ने मनुष्यों की आत्मा को कहाँ तक कलु- पित कर डाला है ! क्या करूँ, किस तरह मनुष्यों की आँखों से परदा हटाऊँ कि वे सत्य धर्म को देख सकें ?" . वे इसी उधेड़-बुन में पड़े थे कि उन्हें अंचानक पंचभद्रवर्गीय भिक्षुओं का स्मरण आया जो उन्हें वहाँ छोड़ काशी की ओर चले गए थे। उनका स्मरण आते ही एक बार उन्हें फिर आशा वधी। उन्होंने अपने मन में कहा कि अच्छा, यदि उत्तम और मध्यम अधिकारी नहीं मिलते हैं तो अधम अधिकारी ही सही। चलो, उन्हीं को इस अंपूर्व ज्ञान का उपदेश करें । उनको आत्मा अवश्य अन्यों की आत्मा से शुद्ध है। उनके संस्कार अच्छे हैं। चाहे व निकृष्ट कोटि के ही सही, अधिकारी तो हैं ! उनसे बढ़कर मुझे इस विज्ञान के दान के लिये इस संसार में दूसरे पात्र मिलने कठिन हैं। यह सोच वे अपने मन में काशी चलकर उन पंचभद्रवर्गीय भिक्षुओं को उपदेश करने का दृढ़ संकल्प कर अपने आसन से उठे और भिक्षा-पात्र ले काशी की ओर चलते हुए।