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(१३) काशी को प्रस्थान सवलं निहत्य मारं बोधिः प्राप्तो हिताय लोकस्य । वाराणसीमुपगतो धर्मचक्रप्रवर्तनाय ।। अपुष और भल्लक नामक वैश्यों के दिए हुए मोदकों को खा और उन्हें अपना केश दे विदाकर गौतम राजायतन वृक्ष-मूल से उठे और अजपाल वृक्ष के नीचे आएं। यहाँ श्रासन लगा बैठ कर वे सोचने लगे कि मैंने अनेक जन्म तपश्चर्या करके इस अपूर्व विशुद्ध बोधिज्ञान को प्राप्त किया है। बड़ी कठिनाई से इस संसार- रूपी पहेली का गूढतत्व मेरी समझ में आया है। यह तत्र अत्यंत दुर्बोध और सूक्ष्म है। संसारी लोग राग द्वेय मद मत्सर में ऐसे लिप्त हैं कि उन्हें संसार के तत्व पर विचार करने का अवकाश ही नहीं है । वे इस क्षणिक आमोद प्रमोद में ओतप्रोत हो रहे हैं। यदि मैं इन संसारी लोगों के सामने द्वादश निदान की व्याख्या करूँ तो ये लोग उसे समझ नहीं सकते। संसार में अधिकारी पुरुष का अभाव सा हो रहा है । वासना के क्षय होने ही पर मनुष्य मोक्ष का अकिकारी वा मुमुक्ष होता है और ऐसे ही लोग इस तत्त्र ज्ञान को समझ सकते हैं और निर्दाण प्राप्त कर सकते हैं। राग द्वेप मोह मत्सर आदि से युक्त संसारी लोग अनधिकारी हैं। वे मेरे नवानु- भूत ज्ञान को नहीं समझ सकते; और ऐसे लोगों को उसका उप- देश करना भी व्यर्थ ही है। अब क्या करूँ ? मैं इस ज्ञान के उप- देश के लिये अधिकारी कहाँ से पाऊँ ? संसार के लोग तो मोह के