( ९६. ) किया; पर गौतम बुद्ध का मन विचलित न हुआ। जब वे अपना सब कल वल कर थक गई, तव गौतम ने हँसते हुए कहा- - यस्स जितं नावजीयति जितमस्त नो याति. कोचि लोके । • तं बुद्धमनंतगोचरं अपदं केन पदेन नेसथ ? ... . __ . यस जालिनी विसत्तिका तण्हा नस्थि कुहिम्हि नेत वे । तं बुद्धमनंतगोचरं अपदं केन पदेन नेसथ । जिसके द्वारा जीते जाने पर फिर दूसरों के जीतने को नहीं रहते और जिसके जीतने पर फिर कोई पीछे जीतने को रह ही नहीं जाता, उस अनंतगोचर अपद बुद्ध को हे तृप्ण आदि, तुम किस पद वा उद्योग से खींच सकती हो ? जिसको विशक्ति के जाल में फंसाने- वाली तृष्णा फिर कहीं नहीं ले जा सकती, उस अनंतगोचर अपद बुद्ध को है तृष्णा आदि, तुम किस पद को ले जा सकती हो ? . : ___ यह बात सुनकर मार की कन्याएँ हारकर जहाँ से आई थीं, . वहीं चली गई। यहीं पर उनके पास आकर एक ब्राह्मण ने यह प्रश्न किया कि " गौतम ! ब्राह्मण किसे कहते हैं ?" वह ब्राह्मण जाति-अभिमान में इतना चूर रहता था कि ब्राह्मण के अति- रिक्त दूसरे वर्ण के मनुष्यों से सिवाय हूँ हूँ करने के स्पष्ट शब्दों में सत्यं वदसि नस्ताव न रागेण स नीयते, विपर्य में प्रतिक्रांतस्तस्नाच्छोचामहे भृशम् । वीयेत याची पपं यदत्माभिर्विनिर्मितम, गौतमस्य विनाशार्थ सोऽस्य दर्व स्फुटेत.। , तत्साधुनस्तावेदं जरानजरशीरमंवर्धापय । यह सुन मार ने कहा--नाहं पश्यामि .लोक पुरुपं सचराघरे ।
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