ने इस ज्ञान की प्राप्ति से जातिस्मर हो गए और सैकड़ों सहस्रों जन्मों की बातें उन्हें स्मरण हुई कि मैं अमुक जन्म में अमुक योनि को प्राप्त हुआ, इत्यादि। फिर रात के तीसरे पहर में उन्हें आश्रवज्ञानदर्शन नामक तीसरी विद्या प्राप्त हुई। इस ज्ञान के प्राप्त होने पर उन्हें समस्त संसार के प्राणी अविद्यांधकार प्रस्तं दिखाई पड़े। वे अपने मन में कहने लगे कि संसार में लोग उत्पन्न होते हैं, जीते हैं, मरते हैं, फिर ऊँची नीची गति को प्राप्त होते हैं, पर अज्ञानवश इस बड़े दुःख के स्कंध का उन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं है। अब वे इन दुःखों का निदान सोचने लगे तो उन्हें ज्ञात हुआ कि जरा मरण दुःखादि का कारण जन्म है। यदि जन्म 'न होता तो न दुःख होता और न जरा-मरण होता। परं जन्म क्यों होता है ? इसका हेतु क्या है ? सोचने से उन्हें मालूम हुआ कि जन्म का कारण धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप है, जिसे भव कहते हैं। क्योंकि - इन्हीं के वशीभूत होकर प्राणियों को भोग के लिये जन्म ग्रहण करना पड़ता है । पर भव कहाँ से आता है ? विचार करके उन्होंने निश्चय किया कि भव की उत्पचि उपादान अर्थात् कर्म से होती है। यदि कोई शुभाशुभ कर्म न करे तो न उसे धर्म होगा और न अधर्म; और जव धर्म और अधर्मरूप भव ही नहीं, तब जन्म क्यों और कहाँ से होगा । फिर वे उपादान का कारण अन्वेषण करने मज्ञा मासादमाह अथोश्यारनेचवोजनान् । भूमिष्टानिवथैलरूवः सर्यान प्राजानुपरवति ॥ •
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