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15 वीजक मूल* जो चीन्हें ताको निर्मल अंगा | अनचीन्हें नर . भयो पतंगा॥ . साखी-चीन्दि चीन्हि का गावहु वारे,वानी परी न चीन्ह । श्रादि अन्त उतपति प्रलय, श्रापूहीं कहि दीन्द ॥ ४॥ रमनी ॥५॥ ' कहाँलो कहाँ युगनकी बाता । भूले ब्रह्म नं चीन्हें बाटा ।। हरिहर ब्रह्माके मनभाई । विवि अक्षर लै युक्ति वनाई । विवि अक्षर का कीन्ह बँधाना। अनहद शब्द ज्योति परमाना ।। अक्षर पढ़ि गुनि । राह चलाई । सनक सनन्दन के मनभाई ।। वेद । कितेव कीन्ह विस्तारा। फैल गैल मन अगम अपारा ।। चहुँ युग भक्तन बांधल बाटी । समुझि न परी मोटरी फाटी ।। भय भय पृथ्वी दहुँ दिश धावै ।। अस्थिरहोय न औषध पावै ॥ होय विहिस्त जो चित न डोलावै । खसमहिं छाँड़ि दोजख को धावे ।। पूरख दिशा हंस गतिहोई । है समीप संधि बूझे । कोई ॥ भक्ता भक्तिक कीन्ह सिंगारा । ड़ि गयल ! । सर्व मांझल धारा ॥