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२०० बीजक मूल । देखि प्रतिमा आपनी । तीनिउँ भये निहाय ३४८ ये मन तोशीतल भया । जब उपजा ब्रह्मज्ञान ॥ जेहि वसंदर जगजरे ! सो पुनि उदक समान३४६ जागे नाता श्रादिका । विसरि गयो सो गेर ॥ ई चौरासी के बसि परे । कहे और की और ३५० अलखलखों अलखेलखौं । लखों निरंजन तोहिं.॥ हौं कबीर सबको लखों । मोको लखे न काहि ३५१ हमतोलखा तिहुँलोक में । तू क्यों कहे ,अलेख ॥ सारशब्द जाना नहीं । घोखे पहिरा भेखः।।३५२|| साखी ऑखी ज्ञानकी । समुझि देखु मनमाहीं । विनु साखी संसार का । झगरा छूटत नाहिं।।३५३॥ इति घीजक मृल ग्रन्थ समाप्त । ५०धौलाल उपाध्यायद्वारा श्रीविश्वेश्वरप्रेस,काशी में मदिन।