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६.१८४ * वीजक मूल * की वल छूटै श्रापने । कीरे छुड़ावै पीव ॥२१॥ जीव मति मारो वापुरा। सबका एकै प्राण ॥ हत्या कवहुँ न छूटि हैं । कोटिन सुना पुराण २१२ जीव घात ना कीजिये । वहरि लेत वै कान ॥ तीरथ गयेन वांचि हो । कोटि हीरा देहुदान २१३ ॥ - तीरथ गये तीनि जना | चित चंचल मन चोर ।। एको पाप न काटिया । लादिनिमन दशौर२१४

  • तीरथ गयेते यहि मुये | जूड़े पानी नहाय ॥

कहहिंकवीरसुनोहो संतो। राक्षस द्वै पछिताय २१५ ॥ तीरथ भई विष वेलरी । रही जुगन जुग छाय ॥

  • कवीरन मूल निकंदिया । कौन हलाहल खाय २१६ ॥

ये गुणवंती बेलरी | तव गुण वार्णि न जाय ।

  • जर काटे ते हरियरी | सींचे ते कुम्हिलाय ।२१७
वेलि कुढंगी फल बुरो । फुलवा कुयुधि वसाय ॥

श्रो विनष्टी तूमरी । सरो पात करवाय २१८ 'पानी.ते अति पातला । धूवाँ ते अति झीन । 'पोननहू ते उतावला । दोस्त कवीरन कीन्ह २१९