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रमैनी। रूपा योगसाजीव आपने मूहहौं यह ( ३३ ) नहीं है यह जानि साहब बिचारयो कि हम इनको सुरति देयँ जेहिते हमको जानि लेइ तौ मैं हंसरूप देकै आपने धामको बोलाय लेउँ। सो जब साहब सुरति दियो तब चैतन्यता भई अर्थात् स्मरणभयो यही चित्तकी उत्पत्तिहै । औ वाको रूपतो अणुहै सोतो आपनोदेखैनहीं है संकल्प विकल्प करैहै कि मैंहौं कि नहींहीं, यही मनकीउत्पत्ति है । फिरि विचारयो कि मैं हीं तो, पै कौनहीं आपनो रूपतो देखनहीं है। फिर निश्चयकियो कि जोमैं होतो न तो यहसंकल्प विकल्प काका होता याते मैंहीं यहीं बुद्धि की उत्पत्ति भई । जौने लोक प्रकाशमें अपार है ताको देखि मानत भयो कि सचित् आनंद स्वरूप से महींहीं यही अहंब्रह्मरूप अहङ्कारकी उत्पत्ति है । सो जब समष्टिजीव आपनेकों चिद्रूप ब्रह्म मान्यो तब वही पूर्वजगत् कारणरूपा योगमाया अर्थात् साहब ते विमुखतारूपा सो स्थूलरूप ते चिद्रूपा योगमाया लागी । तब आपनेको सच्चिदानंद ब्रह्म मानिकै एकते अनेक होबेकी इच्छाकियो अर्थात् समष्टिते व्यष्टि होबेकी इच्छा कियो । तब साहब जान्यो कि समष्टि जीव आपनेको सच्चिदानन्द ब्रह्म मानि संसारी होनचहै है तब सार शब्द जो रामनाम ताके दियो कि, याकाये अर्थ समुझि हमको जानै तौ हम हंसस्वरूपदै अपने धामको लैवें । सो रामनाम को अर्थ साहब मुखतो न समुझ्यो जगत्मुख अर्थ लगाय राम नामकी जे षटुमात्रा हैं तिनते पांच मात्राते पांच ब्रह्म प्रकट कियो छठ मात्राको अर्थ जीव को हंसस्वरूप है सो न जान्या वाहीको जीवको अर्थ करि समष्टि ते व्यष्टि द्वैगयो । सो समष्टि ते व्यष्टि होनेवाली जो इच्छाहै सोई गायत्रीरूपा मायाहै तेहि ते ब्रह्मादिक देवता भये । सो प्रथम शुद्ध जीव आपनेको ब्रह्म मानि अशुद्ध वैगये हैं याही हेतु ब्रह्मको कोई जगत्को निमित्त कारण कहै कोईनिमित्त उपादान कारण कहहैं याही ते वा ब्रह्म अशुद्ध जीवनको बाप है सेतों धोखई है । गायत्री कैसे बतावै कि प्रथम ब्रह्मासों कि तिहारा बाप है । ताते यहकहै हैं कि प्रथम तुमरहे तिनकी इच्छा हमहैं । अबहम तुमकहे हमते तुमभये और तो कोई हई नहींहैं । तुमहीं हमार पुरुषहै। हमॆतुम्हारि जोई हैं अर्थात् जबतुम शुद्धते अशुद्धभयेही तब चित अचितरूपा जो माया हमहैं तिनहाते सब । लित है उत्पन्न भयो है तबहूं हम तुम्हारी नारी रही हैं । औ अबहू सरस्वती आदिक तुमको देयँगे ते हमहीं हैं याते तुमहीं पुरुषहौ हमहीं नारी हैं ॥ ५ ॥