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बघेलवंशवर्णन । ( ७१९) चार अश्व बग्घीनमें, चढ़त लाट नहिं कोय ।। चढ़ जो कोऊ धोखेहूं, देइ दंड धुव सोइ ॥ ३६ ॥ सो पठयो महराज पै, गुणि सो निजहि समान ॥ चड़ि भूपति रघुराज तब,गुन्यो कृपा भगवान ॥ ३७॥ मान्यो यह रघुराज नृप, सब यदुराज प्रभाव ॥ और येक आगे चरित, वरण भरि चित चाव ॥ ३८॥ विजयनगर है नामजेहि, ईजानगर विख्यात ॥ तहँको गजपतिसिंहहै, भूपति मति अवदात ॥ ३९ ॥ सादर सहित कुटुंब सो, बस्यो बनारस आय ॥ ताके भै यक कन्यका, ति सम सुंदर काय ॥२४० ॥ तेहि व्याहन हित सो उत्साहन । भेज्यो जन पछाह नरनाहन ॥ ते सब दूरिदेश बहु मानी । अपनो जाब अगम मन जानी ॥ ताते ते न कबूलहि कीने । मुद्रा लाखनहूँके दीने ॥ तब सो : ईनानगर भुवाला । मनमें कीन्ह्यो शोच विशाला ॥ पुनिकीन्ह्यो अस मनहिं विचारा । रीवा को है बड़ो भुवाला ॥ तेहिते जो ममसुता विवाहू । होय तो हवै महाउछाहू ॥ एक समय रघुराज उदारा । भेंट करन' जयपुरहिं भुवारा ॥ मिरजापुरको कियो पयाना । तहँ नृप ईजानगर सजाना ॥ दोहा-मुलाकात कर नजरदै, बहु विधि कीन्ह्यो सेव ॥ पुनि जब तकमा लेनको, गयो काशि नरदेव ॥४१॥ तबहू बहुविध सेव करि, सुता व्याह होत ॥ विनयकियो बहुभाँति सों, सो नृप बडो सचेत॥ ४२ नाथ कह्यो वकील करिदीनै । ज्वाब स्वाल तेहि मुख नृप कीजै ॥ सुनि प्रसन्न गजपति नृप भयऊ । सादरनिजवकील करि यऊ ॥ भयो जवाब स्वाल युगवरषा । पॅरिनयको टीका कछुनरषा ॥ पूंछयो प्रभु तेहि नृपकी आदी । भाषतर्भ वकील अहलादी ॥