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(७१२) बघेलवंशवर्णन । दोहा-राना नृप कछवाह अरु, हाडा भूप विहाय ॥ जैती लसत पछाह में, भूपन की ममुदाय ॥ १९ ॥ तिनके भेजि कटारजो, करत आपनो व्याह ॥ ऐसो प्रथित पछामें, जोधपुरी नरनाह ।। २२० ॥ पुरुषनते संवैध गुणि, तख्तसिंह नरनाह ॥ रीवा करन विवाह को, कीन्ह्यो परम उछाह ॥२२१ ॥ रानिन सुतन समेत भुवाला । निजपुरते किय गमन उताला ॥ जेठो कुबँर तासु रह जोई। चतुराङ्गणी फौजलै सोई ॥ आवत भयो आगरे जबहीं । मिल्यो नृपति जयपुरको तबहीं ॥ ताकी तासु मित्रता भारी । तास ऐसी गिरा उचारी ॥ जेहिं कन्याको तिलक चढ़ी तुव । सो द्वैगई कालके वश ध्रुव ।। जो रघुराजसुता अब अहई । सो तुव भयऊ नृप घर रहई ॥ तास तुव नहिं उचित विवाहा । रीवां जानन करहु उछाहा ॥ हमरे सँग जयपुर पगु धारो । सुनि सो कह यह भलो उधारो ॥ दोहा है सवार बग्घी तुरत, जयपुरको नरनाह ॥ ताको संग चढ़ाय कै, लैगो जयपुरकाह ॥ २२ ॥ महाराज रघुराजकी, जेठि सुता वश काल॥ होत भई तबइतहिते, सुमति दिवान उताल॥ २३ ॥ लिख्यो जोधपुरको यह पाती । जहँ अवशर है विख्याती ॥ जासु तिलक जेठेको चढेऊ । सो नृपकी दुहिता जिय कदेऊ ॥ ताते यह नृपसुता जो अहई । तासु व्याह जेठको चहई ॥ तामें पकाइत कारलीन्यो । तब तुम इतै पयानहिं कीन्हयो । यह पाती कहि कवि अजवेशा । सो पक्काइन कर लियवेशा ॥ नृप दिवान कहँ पत्र पठायो । हम यह पकाइत कार भाया । सों आगरे सुरति विसरायो । जेठ कुँवरको नहिं लै आयो । तख्तसिंह नृप रेल चढ़ाई । सबको तीरथषति नहवाई ॥