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बघेलवंशवर्णन । (६९५) निरखि निरखि जयपुर नर नारी । पावतभे उर आनँद भारी ॥ कछु दूरीते जयपुर राजा । आगू ॐ आवत रघुराजा ।। महल जाय गद्दी बैठायो । आपहुँ बैठि परमसुख पायो । विविध भाँति सत्कारहि कीन्ह्यो । पाय सो येऊ अति सुख भीन्यो । सैन्य सहित पुनि शिबिर सिधाई । बात होन संबंध चलाई ॥ ठहरिगयो सो विनहिं प्रयास । गुन्यो कृपा यह रमा निवासा ॥ रसम व्याह - पूरव जो हो । सो दै करि सादर मुदमोई ॥ वृन्दावन तीरथ करिवेको । बढ़ी लालसा वसु दीवेको । दोहा-सादर सब सरदारसो, अरु देवानहुँ पाहि ॥ कहहिं सफल होता जनम, लखि वृंदावन काहि॥ ५४॥ सुदिन शोधाय ज्योतिषिन तेरे । श्रीरघुराज मोद लहि ढेरे ॥ श्रीहरि गुरु पदपंकज सौंरी । सैन्य सहित वृन्दावन ओरी ॥ कीन्ह्यो होत प्रभात पयाना । बने फौजमें अमित निसाना ॥ बीच बीच वीथिन कार वासा । पहुँचत भये जबै ब्रन पासा ॥ सादर करके दंड प्रणामा । जातभये तुलसीवन ठामा ॥ वृन्दावन मधुपुर दर्शना । नंदगाँव जो विदित जहाना ॥ मुख्य चारि तीरथ ये करिकै । दर्शन कर साधुन मुद भरिकै ॥ पुनि चौरासी कोशहु केरी । किय प्रदक्षिणा लहि मुद देरी ॥ दोहा-हरिमंदिर जेते रहे, दर्शन किय पद जाय ॥ हय गय वसन अमोल अरु, मोहर अमित चढ़ाय ५९ राधा राधारमणकी, मूरति पुनि धराय ॥ रागभोग हित गाँव यक, दीन्ह्यो तह चढ़ाय ॥५६॥ पुनि विश्रांतघाटमें जाई । सुवरण तुला चढ्यो मुख छाई ॥ सो सुवरण ब्रजमंडलं वासी । नेते रहे विष सुखरासी । तिनको दै कीन्ह्यो अति तोषु । ते माने सब भांति सँमेषु ॥ तिमि याचक ज रहे घनेरे । तिन्हैं हेम बहु दिये निवेरे ॥ नारी रोकि रोकि मंगमाहीं । कहि कहि लला लेहि गहि बाहीं ॥ तिनको मनवांछित धन दीन्हे । शाशनाय बहु मानहिं कीन्हे ।।