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(६८८) बघेलवंशवर्णन । तारथ चित्रकूट जे नाना । तहां पठे कार द्रव्य महाना ।। सविधि कियो साधुन सत्कारा । ते सब जय जय किये अपारा ।। । लियो मन्त्र जबते युत प्रीती । तबते चलन लग्या यह रीती ! दोहा-पाठ गजेंद्रहि मोक्ष अरू, मूल रमायण ख्यात । करि नारायण कवचको, पाठ उठें परभात ॥ १६ ॥ पण्डित जे नव कृष्ण निबेरे । बसनहार कलकत्ता केरे ॥ तिनहिं लाटसो कहि बोलवायो । विश्वनाथ नरनाथ सोहायो ।। सौंपिदियो निज सुत रघुराने । विद्या सुखद पड़ावन काजै ॥ तिनसो श्रीरघुराज सुजाना । अङ्गनी पदि बहु सुख माना ॥ मुग्धबोध व्याकरण विशाला । पुनि पढ़ि लियो थोरहो काला ! फेरि अयोध्यावासि महन्ता । जग जाहिर रामानुज सन्ता । सौंप्यो तिन्हैं पढ़ावन हेतू । नृप विश्वनाथ धर्मको सेतू ।। तिनसों वाल्मीकि रामायन । श्रीरघुराज पढ्यो :अति चायन ॥ दोहा-सवालाख श्लोक जेहिं, महाभारत विख्यात ॥ विन श्रमताको पढिलियो, कहि सबसों हरषात ॥१७॥ कार मज्जन विधियुत श्रीकन्ता । पूजन ठानि रोज सुखवन्ता ।। वाल्मीकि रामायण सादर । श्रीभागवत सुनावत सुखकर ।। वाल्मीकि भागवत विशोका । प्रति अध्याय निते श्लाका ।। जेहिं आगे श्लोक जो होई । पूंछे बुधहि बतावत सोई ।। महाभारतमें जे इतिहासा । ते पुस्तक विन करत प्रकासा । | अस सब भांति अलौकिक करणी । श्रीरघुराज केरि कवि वरणी ॥ गति जो कविता रचन नवीनी । बालहिंते विरंचि तेहिं दीनी । संस्कृत और भाषहू केरी । कविता बहु विधि रची घनेरी ॥ दोहा-विनयमालको प्रथम रचि, रुक्मिणि परिणय फेरि ॥ पितुहिं सुनायो ते भये, अति प्रसन्न मुख टेरि ॥ १८ ॥ चित्रकूट गमनत भये, एक समय रघुराज ॥ रच्यो तहां सुंदर शतक, हनुमतचरित दराज ॥ १९॥