यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

( ६८४ ) बघेलवंशवणेन । छप्पय-वीरभद्र सुत रामभूपको हंस सुहायो । श्रीकवीर आगम निदेश निजप्रन्थहं गायो । विश्वनाय तेहिं तीय गर्भ जबते सो आयो । तवते बाँधवदेश धर्म परमानंद छायो ।। कहुँ रह्यो न अधरमलेश क्षिाति विन कलेश पुरजन भयो कलि वेश छयोकृतयुतधरम सतयुगलेशसो काहि दय१ दोहा-रीवा घर घर सब प्रजा, सुखभरि करत उचार॥ विश्वनाथके होय सुत, तौ धनि जन्म हमार ॥ ७॥ परमहंस जो ऋषभदेवसम । चतुरदास जेहि नाम शमन, भ्रम ॥ फिरतरहे रीवापुरमाहीं । रामभजनमें मग्न सदाहीं ॥ डोलत मग औरही मुखबोलें । निज हियकोअंतर नहिँखोलें ॥ वर्षाऋतु धारै शिरवर्षा । जाड़े जलमें वर्ल्स सहर्षा ॥ ग्रीषम तपत उपलमें सोवें । प्रेमते हँसैं कहूं क्षण रौवें ॥ नृप रघुराज सुतासु चरित्रा । भक्तमालमें रच्यो पावित्रा ॥ परमहंस से सहन सुभाये । सुविश्वनाथ जन्मदिन आये ॥ लगे बजावन मुदित नगारा । कहि सुख हंस लेतु अवतारां । दोहा-यह हवाल जयासह नृप, सनि सुनि त्यों पितु मात ॥ क्षण क्षण अति हरषातभे, हियमें सो न समात ॥८॥ अष्टादशसै असीको, साल सुकातिक मास ॥ कृष्णपक्ष तिथि चौथ शुभ,वासरदानि हुलास॥ ९ ॥ वीरभद्र नृप हंसस्वरूपा । भयो भूप रघुराज अनूपा ॥ कृष्णचंद्रको प्रिय अधिकारी । शर्मद धरा धर्म धुरधारी ॥ "नाम भागवतदास दुलारा । करहिं मातु पितु सदा उचारा ॥ बालहिते भो ज्ञाननिधाना । भक्तवानं पूजक भगवाना ॥ कछुदिनमें जननी मतिवारी । तनु ताज पुरवैकुंठ सिधारी ॥ पिता पितामह निकट सकारे । सैनित जाहिं खेलावन वारे ॥ तिनस कहि कहि सुंदर वानी । कथै ज्ञान मानहु बड़ ज्ञानी ॥ तिथि चौथे साल सुकाहि वीरभद्र